रामेश्वर कारपेंटर, साप्ताहिक मालवा-दर्पण संपादक
भारत वर्ष एक लोकतंत्र का अनूठा उदाहरण रहा है। जहां का संविधान संपूर्ण प्रभुत्व संपन्न लोकतंत्रात्मक गणराज्य की भावना से लिखा गया है इसमें भारत के समस्त नागरिकों को मौलिक अधिकार प्रदान किये गए है। सबको समानता का अधिकार है। हमारे देश में किंतु विगत कुछ वर्षों से इस संविधान की महिमा को कलंकित करने के प्रयास लगातार हो रहे है, जहां मतदान द्वारा लोकतंत्रात्मक सरकार बनती आ रही थी जहां अब सरकार बनाने, सरकार गिराने में धनबल का उपयोग होने की जो खबरे आए दिन सुनने को मिल रही। यह स्थिति लोकतंत्र के लिए घातक होती जा रही है। ईमानदारी से मतदान कर बनाई गई सरकार को धनबल से गिराने का घिनोना खेल हमारे सभ्य समाज एवं स्वस्थ लोकतंत्र के लिये घातक होता जा रहा है। अब जनता का कोई मोल नहीं रहा है। जनमत का कोई अस्तित्व नहीं रहा है। इसके लिये सबसे ज्यादा जवाबदार वे लोग हैं, जिन्होंने रुपयों के खातिर हजारों लाखों मतदाताओं के साथ विश्वासघात किया है। यदि धनबल से ही सरकारें बनने लगी, गिरने लगी तो देश में पुन: सामंत शाही प्रथा कायम होने लगेगी और विदेशी ताकते फिर हमारे सामंतों को बड़े-बड़े प्रलोभन लेकर फिर हमारे देश पर अधिकार कर लेंगे फिर से हम गुलाम हो जाएंगे। यह कल्पना नहीं हकीकत संकट का संकेत है। इतिहास साक्षी है ईस्ट इंडिया कंपनी ने धीरे-धीरे हमारे देश की 585 रियासतों को एक-एक कर गुलाम कर लिया था उसी का परिणाम है हम सैकड़ो साल गुलाम रहे। जैसे तैसे आजादी की सुगंध महसूस करने लगे तो फिर छोटे-छोटे स्वार्थों की खातिर स्वस्थ लोकतंत्र का गला घोटने को तैयार हो गए। अब भी हमने किसी भी पार्टी या दल को राष्ट्र से अधिक महत्व दिया तो वह दिन दूर नहीं जब हम फिर परतंत्र दिखाई देंगे और हमारे आने वाली पीड़ी हमें कभी माफ नहीं करेगी।
खतरनाक है लोकतंत्र में सामंतशाही शैली