रामेश्वर कारपेंटर
आज मानव समाज में अधिकतर लोग किसी न किसी कारण से कहीं न कहीं दु:खी जरुर है। हां कुछ लोग इस दु:ख को सबके सामने प्रकट कर देते है कुछ मन ही मन अंतरद्वंद में घिरे रहते है। यद्दपि इस भौतिक युग में मनुष्य हर फन में माहिर होने की कला सीख चुका है, पर कोई अपने पड़ोसी से दु:खी है तो कोइ विरोधी दल के नेता से दुखी है। कुछ तो अपने परिवार से दु:खी है और अधिकतर लोग तो दूसरे के सुखी होने से दुखी है पर निष्कर्ष यह है दु:खी सभी है इस दुख का सबसे बड़ा कारण हमारी सोच है हमारी मानसिकता है यदि हमारी सोच सकारात्मक होगी परहित की होगी तो हम अपेक्षाकृत कम दु:खी होंगे जिनकी सोच नकारात्मक होगी दूसरों को दु:ख देने की होगी निश्चित ही वे अधिक समय तक सुख से नहीं रह सकेंगे वे खुद भी विपत्ति से घिरेंगे और अपने परिवार को भी विपत्ति में डालेंगे। विभीषण ने रावण से यही कहा था 'जहाँ सुमति तहं संपति नाना, जहाँ कुमति तहं विपत्ति निधाना' कहने का अर्थ है यदि हम अपने विचार अपनी सोच अच्छी रखेंगे पर हित की रखेंगे तो स्वयं तो सुखी होंगे ही निश्चित ही समाज में भी सुख का माहौल बनाएंगे और यदि हमारी सोच विकृत होगी दूसरों को हानि पहुंचाने की होगी तो हमको तो दु:खी होना ही है। हम समाज को भी कहीं न कहीं दु:ख अवश्य देंगे। हमें तीन विचारधाराओं से गुजरना होता है- प्रकृति, विकृति और संस्कृति। पृकृति की विचारधारा से आशय अपने हक की कमाई का ही उपयोग करें। विकृति की विचारधारा से आशय दूसरे के हक पर जबरन अधिकार करना है, दूसरे का हक छीनकर अपने को सुखी करना है भले ही हमारे इस कृत्य से उसे कितना ही बड़ा आघात क्यों न लगे। वर्तमान राजनीति में यही पृवृति इस समय हावी हो रही है जो लोकतंत्र का सरेआम मजाक उड़ा रही है। तीसरी पृवृति है संस्कृति जिसकी झलक इस समय देखने को मिल रही है सनातन काल से हमारी संस्कृति परहित की रही है कोरोना संकट में जो लोग संस्थाएं अपने हक में से थोड़ा-थोड़ा निकालकर जरुरतमंदों तक पहुंचा रहे है यही हमारी संस्कृति है इसी संस्कृति के कारण संकट की इस घड़ी में पूरा विश्व हमारे देश की ओर याचक निगाह से देख रहा है, परंतु दुख तो उस समय होता है जब ऐसे समय में भी कुछ स्वार्थी लोग प्रकृति, संस्कृति को छोड़कर विकृति की मानसिकता से कार्य कर रहे है। ऐसे ही लोगों के कारण आज समाज में विपत्ति आ रही है।
क्योंकि जहाँ कुमति तहं विपत्ति निधाना